समाज के एक बड़े तबके द्वारा मुगल शासन, खासकर कट्टरपंथी औरंगजेब को धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश की जाती है। हालाँकि, इतिहास में ऐसे कई तथ्य अब भी मौजूद हैं, जो औरंगजेब के बारे में किए जाने वाले ऐसे दावों का खंडन करते हैं। उनमें एक साक्ष्य औरंगजेब का वो आदेश है, जिसे 9 अप्रैल को काशी सहित देश के सभी मंदिर को तोड़ने के लिए दिया गया था।
औरंगजेब ने 9 अप्रैल 1669 को हिंदुओं के मंदिरों के साथ-साथ विद्यालयों को भी गिराने का आदेश दिया। इस आदेश को काशी-मथुरा के मंदिरों से लेकर उसके सल्तनत के अधीन आने वाले सभी 21 सूबों में लागू किया गया था। मंदिरों को तोड़ने के साथ ही हिंदुओं को त्योहारों को मनाने एवं धार्मिक प्रथाओं को अपनाने पर भी रोक लगा दी गई थी।
The Islamic record of Maasir-i-Alamgiri states that on April 9, 1669, Aurangzeb had issued a ‘farman’ decree, “to governors of all the provinces to demolish the schools and temples of the infidels and strongly put down their teachings and religious practices.”
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— 𝗔𝗵𝗮𝗺 𝗕𝗿𝗮𝗵𝗺𝗮𝘀𝗺𝗶 (@TheRudra1008) October 18, 2022
औरंगजेब के इस आदेश का जिक्र उसके दरबारी लेखक साकी मुस्ताइद खान ने अपनी किताब ‘मआसिर-ए-आलमगीरी’ में किया है। 1965 में प्रकाशित वाराणसी गजेटियर के पेज नंबर- 57 पर भी इस आदेश का जिक्र है। इतिहासकारों का मानना है कि इस आदेश के बाद सोमनाथ, काशी विश्वनाथ, केशवदेव समेत सैकड़ों मंदिरों को गिरा दिया गया।
औरंगजेब के आदेश के बाद समय-समय पर जिन मंदिरों को गिराया गया था उनमें गुजरात का सोमनाथ मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा के केशवदेव मंदिर, अहमदाबाद का चिंतामणि मंदिर, बीजापुर का मंदिर, वडनगर के हथेश्वर मंदिर, उदयपुर में झीलों के किनारे बने 3 मंदिर, उज्जैन के आसपास के मंदिर, सवाई माधोपुर में मलारना मंदिर, मथुरा में राजा मानसिंह द्वारा 1590 में निर्माण कराए गए गोविंद देव मंदिर आदि प्रमुख हैं।
औरंगजेब के आदेश पर ना सिर्फ मंदिरों को तोड़ा गया, बल्कि वहाँ लगाए गए शिलालेखों को भी नष्ट किया गया, ताकि हिंदू अपने वास्तविक इतिहास से हमेशा के लिए अनजान रह जाएँ। हिंदुओं को उनकी धार्मिक एवं आध्यात्मिक गतिविधियों को आयोजित करने पर दंडित किया जाता था।
औरंगजेब को अपने हिंदू विरोधी फैसलों के लिए जाना जाता है। अपने शासन काल के 11 वर्ष में ‘झरोखा दर्शन’ पर प्रतिबंध लगा दिया था। झरोखा दर्शन राजाओं द्वारा अपने किले/महलों की बालकनी (झरोखा) से लोगों को संबोधित करने की दैनिक की क्रिया थी। इस दौरान जनता अपनी समस्या सीधे राजा से कहती थी और राजा उसका निवारण करते थे।
अपने शासन के 12वें वर्ष में औरंगजेब ने ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस प्रथा के अंतर्गत राजा/महाराजा या किसी व्यक्ति को तराजू में एक तरफ बैठा दिया जाता था और उसके भार के बराबर अनाज आदि तौल कर गरीबों में बाँट दिया जाता था या पशु-पक्षियों को खिला दिया जाता था।
हालाँकि, इरफान हबीब जैसे इतिहासकार औरंगजेब के कट्टरपंथी स्वभाव को उदार दिखाने की कोशिश करते रहे हैं। वे मंदिर आदि तुड़वाना ताकत की निशानी का दिखावा बताते हैं। मुगलों के प्रति आदर का भाव रखने वाले इतिहासकार इरफान हबीब का कहना है कि औरंगजेब ने मंदिर तोड़वाए थे, क्योंकि उस दौरान कोई दूसरा राजा उस साम्राज्य को जीतता था तो वह सबसे पहले उस साम्राज्य के प्रतीक को खत्म करना चाहता था।
इरफान हबीब ने ब्राह्मण वंश के शुंग एवं पल्लव का उदाहरण दिया है। उनका कहना है कि मौर्य वंश के बाद जब शुंग वंश के राजा पुष्यमित्र ने सत्ता संभाला तो सैकड़ों बौद्ध मठों को नष्ट करवाया था और बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई थी। उनका यह भी कहना है कि सन 642 में पल्लव राजा नरसिंहवर्मन ने चालुक्यों की राजधानी वातापी में गणेश के मंदिर को लूटा और उसके बाद तोड़ दिया था।
कथित इतिहासकार राजीव द्विवेदी तो यहाँ तक तर्क देते हैं कि औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को आमेर के राजा जयसिंह की निगरानी में गिरवाया था। द्विवेदी का यह तर्क पूर्वाग्रह और पक्षपात से जुड़ा हुआ नजर आता है।
क्या राजा जयसिंह की निगरानी में हुआ विश्वनाथ मंदिर विध्वंस?
राजीव द्विवेदी जैसे कथित इतिहासकारों का कहना है कि मंदिर गिराने का आदेश औरंगज़ेब ने जरूर दिया था, लेकिन मंदिर को गिराने का काम आमेर के राजा जय सिंह की देख-रेख में किया गया था। जिस समय औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को गिरवाया था, उससे पहले ही शिवाजी महाराज की मदद करने के कारण औरंगजेब उन्हें जहर देकर मरवा चुका था।
औरंगजेब ने मंदिरों को गिराने का आदेश 9 अप्रैल 1669 को दिया था। वहीं, औरंगजेब ने 8 सितंबर 1667 ईस्वी को बीजापुर से लौटते समय मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में राजा जय सिंह की हत्या अपने विश्वासपात्रों के जरिए जहर देकर करवा दी थी। इस तरह मंदिर विध्वंस के फरमान निकलने से दो साल पहले ही जय सिंह की मृत्यु हो चुकी थी।
दरअसल, दक्षिण में शिवाजी महाराज के नेतृत्व में मराठों के शक्तिशाली होते जाने के कारण पूर्व के सभी अभियानों में सफल रहे आमेर के महाराजा जय सिंह के नेतृत्व में 1.40 लाख सैनिकों को औरंगजेब ने भेजा था। जयसिंह के साथ औरंगजेब ने दिलेर खान को भी भेजा था। यहाँ जयसिंह ने कूटनीति का परिचय देते हुए मुगलों की तरफ से शिवाजी के साथ पुरंदर की संधि कर ली। इससे शिवाजी महाराज को समय मिल गया।
11 जून 1665 को हुई पुरंदर की संधि होने के बाद राजा जयसिंह ने शिवाजी को औरंगजेब से मिलने की सलाह दी। साथ ही यह भी वचन दिया कि औरंगजेब उन्हें बंदी नहीं बनाएगा। बीजापुर अभियान में होने के कारण उन्होंने खत के जरिए इसकी जानकारी औरंगजेब और अपने बेटे राम सिंह को दी। हालाँकि, जैसे ही शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा पहुँचे तो उन्हें उनके 9 साल के बेटे संभाजी के साथ बंदी बना लिया गया।
इससे जयसिंह बहुत दुखी और औरंगजेब से नाराज हुए। उन्होंने अपने वचन का पालन करने के लिए शिवाजी को मुक्त कराने की तरकीब निकालनी शुरू कर दी। उन्होंने अपने बेटे राम सिंह के साथ इसकी चर्चा की और अंत में बेटे की मदद से शिवाजी को कैद से भगा दिए। इससे औरंगजेब चिढ़ गया और जयसिंह की रास्ते में ही हत्या करा दी।
जय सिंह की निगरानी में काशी विश्वनाथ मंदिर गिराने की कहानी इसलिए भी झूठी लगती है कि इसका पुनर्निर्माण अकबर के समय उनके पूर्वज राजा मानसिंह ने कराया था। इस तरह अपना वचन निभाने के लिए औरंगजेब की कैद से शिवाजी महाराज को भगाने वाले राजा जय सिंह अपने पूर्वज के किए धर्मार्थ कार्य को कभी मिटा नहीं सकते थे।
काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत डॉक्टर कुलपति तिवारी कहते हैं कि हिस्ट्री ऑफ बनारस में उल्लेख है कि राजा मान सिंह व राजा टोडरमल मुंगेर (बिहार) की लड़ाई से दिल्ली लौटते समय काशी में अपने पितरों का श्राद्ध कर्म कराया। मंदिर निर्माण के लिए नारायण भट्ट ने मानसिंह से आग्रह किया। इसके बाद राजा मानसिंह ने अकबर से मंदिर बनाने के लिए फरमान जारी का आग्रह किया। फरमान जारी होने के बाद टोडरमल ने धन की व्यवस्था की और मंदिर का निर्माण हुआ।
औरंगजेब की क्रूरता छिपाने के लिए कॉन्ग्रेस अध्यक्ष ने रची कहानी
इरफान हबीब की कहानी के अलावा, कुछ अन्य धर्मनिरपेक्षवादियों द्वारा काशी मंदिर को औरंगजेब द्वारा तोड़े जाने के पीछे ‘कच्छ की रानी’ की फर्जी कहानी बताई जाती है। इस कहानी में कहा जाता है कि रानी काशी दर्शन के लिए गई थीं। उस दौरान मंदिर के पुजारियों ने उनका अपमान किया। इसके बाद औरंगजेब ने इसे ढ़हाने का आदेश दिया था।
इरफान हबीब के अलावा, प्रोफ़ेसर हेरंब चतुर्वेदी और डॉक्टर विश्वंभर नाथ पांडे जैसे कथित हिंदू विरोधी इतिहासकार भी सीतारमैय्या की इस प्रोपगेंडा को सही मानते हैं और इसे खूब फैलाते भी हैं। पांडे ने तो अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति, मुग़ल विरासत: औरंगज़ेब के फ़रमान’ में सीतारमैय्या की किताब के हवाले से इसका जिक्र भी कर दिया है।
हेरंब चतुर्वेदी जैसे पूर्वाग्रही इतिहासकार यहाँ तक कह दिए जिस कच्छ की रानी के साथ काशी विश्वनाथ मंदिर में पुजारियों द्वारा दुर्व्यवहार करने की बात सीतारमैय्या ने लिखी है, वह कोई और आमेर की रानी थी। चतुर्वेदी के पास इस साबित करने का कोई तथ्य नहीं है। बस खुद को इतिहासकार मानकर ऐलान कर देना ही तथ्य को योग्य समझते हैं।
यहाँ चतुर्वेदी उस सीतारम्मैया की बात को अलग दिशा देकर सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं, जो खुद एक मौखिक बयान पर इस प्रोपगेंडा का अपनी किताब में छापा था। सीतारम्मैया ने ‘कच्छ की रानी’ वाली कहानी की एक मौलाना के कहने पर छापी थी। दूसरी बात, हेरंब चतुर्वेदी जैसे कथित इतिहासकारों को पता होना चाहिए कि कच्छ से आमेर की दूरी लगभग 900 किलोमीटर है।
‘कच्छ की रानी’ की कहानी का सबसे पहले उल्लेख कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष रहे पट्टाभि सीतारमैय्या ने अपनी किताब में किया था। साल 1942 से 1945 तक जेल में रहने के दौरान सीतारमैय्या ने एक जेल डायरी लिखी थी, जो 1946 में ‘Feathers And Stones के नाम से छपी थी। इसमें सीतारम्मैया ने अपने एक मौलाना मित्र की पांडुलिपि का जिक्र करते हुए विश्वानाथ मंदिर को तोड़ने के आदेश का जिक्र किया था।
तेलुगु नियोगी ब्राह्मण परिवार में जन्मे सीतारम्मैया ने अपनी किताब ‘फीदर एंड स्टोन्स’ में लिखा था, “एक बार औरंगजेब बनारस के पास से गुजर रहे थे। सभी हिंदू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और भोलेनाथ के दर्शन के लिए काशी आए। मंदिर में दर्शन कर जब लोगों का समूह लौटा तो पता चला कि कच्छ की रानी गायब हैं। हर जगह तलाश करने के बाद भी उनकी कोई जानकारी नहीं मिली।”
सीतारमैय्या आगे लिखते हैं, “सघन तलाशी के बाद वह मंदिर में एक तहखाने का पता चला। दो मंजिला दिखने वाले मंदिर के तहखाने में जाने वाला रास्ता बंद मिला। दरवाजा तोड़ने पर वहाँ बिना आभूषण के रानी दिखाई दीं। पता चला कि यहाँ का महंत अमीर और आभूषण पहने श्रद्धालुओं को मंदिर दिखाने के नाम तहखाने में लाता था और लूटा लेता था।”
सीतारमैय्या ने उस किताब में दावा किया कि जब औरंगजेब को यह कहानी पता चली तो वह गुस्सा हो गया और उसने मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया। इसके बाद वहाँ मस्जिद बना दिया गया। हालाँकि, जिस नामचीन मौलाना की पांडुलिपि के आधार पर उन्होंने यह दावा किया था, उस मौलाना का उन्होंने कभी नाम नहीं उजागर किया और ना ही कभी उस पांडुलिपि को खुद देखा। इस तरह यह फर्जी कहानी प्रचलित हो गई।
बता दें कि सन 1948 से 1949 तक कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे सीतारम्मैया वही व्यक्ति हैं, जिन्हें 1939 में कॉन्ग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के चुनाव में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ महात्मा गाँधी ने खड़ा किया था। तब महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘पट्टाभि सीतारमैय्या की हार मेरी हार होगी’। फिर भी सीतारमैय्या नेताजी से जीत नहीं पाए थे।
कच्छ की रानी कभी काशी गई ही नहीं
आमतौर पर किसी राजा या रानी या फिर अन्य दरबारी से किसी पुजारी द्वारा इस तरह की दुस्साहस करने की कल्पना नहीं की जा सकती। राघव चेतन जैसे कुछ दरबारी अपवाद हैं, जो अपनी रानी के कारण अलाउद्दीन खिलजी के पास जा पहुँचा था। कुछ अन्य मंत्रियों या दरबारियों द्वारा साजिश रचने का इतिहास में जिक्र है, लेकिन मंदिर में बंधक बनाने की कहानी पूरी तरह काल्पनिक है।
शास्त्रों के अनुसार, राजा को धरती पर देवताओं का प्रतिनिधि माना गया है। राजा की आज्ञा ही ‘राजाज्ञा’ कहलाया है, जो राज्य के कानून का आधार होता था। इस राजाज्ञा से अछूता ना ही राजपरिवार का कोई सदस्य होता था और ना ही कोई ब्राह्मण या पुजारी। गलती करने पर सबको दंड दिया जाता था। हालाँकि, भारत में यह वर्ग ज्ञान परंपरा को समर्पित रहा है।
कुछ कालखंड में धर्म की आड़ में पुजारी शक्तिशाली जरूर बने, जिसके कारण देवदासी जैसी प्रथाओं ने जन्म लिया। हालाँकि, ये सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में ऐसी स्थिति देखने को मिलती है। बेबीलोन, साइप्रस, मिस्र आदि सभ्यताओं में पुजारी वर्ग के शक्तिशाली होने पर ऐसी ही प्रथा पनपी। हेरोडोटस ने इसका जिक्र किया है।
सीतारमैय्या की कहानी को लेकर कच्छ के राजपरिवार से जुड़े कृतार्थ सिंह जाडेजा का कहना है कि कच्छ के इतिहास में कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि राज्य की कोई रानी औरंगजेब के समय बनारस की तीर्थयात्रा गई हो। कृतार्थ सिंह के मुताबिक, उस समय कच्छ भौगोलिक तौर पर इतना कटा हुआ था कि काशी तो दूर, नजदीक के द्वारका की धार्मिक यात्रा पर भी जल्दी जाना संभव नहीं था।
इसका यह पहलू यह भी है कि कच्छ के तत्कालीन महाराजा महाराव तमाची ने औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को अपने यहाँ शरण दी थी। कच्छ के भुज शहर 1659 ईस्वी में दारा शिकोह को एक बगीचे में ठहराया गया था। इस बगीचे को आज भी दारावाड़ी के कहा जाता है। इस तरह अपने दुश्मन भाई को शरण देने वाले राज्य की रानी के लिए इतना भलमानस शायद ही दिखाएगा।