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Reading: फ्रेंच किताबें, अंग्रेजी सिनेमा… ‘लाल कॉटेज’ का लाल ऐसे बन गया हिंदुत्व का सबसे बड़ा नायक
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रिपोर्ट

फ्रेंच किताबें, अंग्रेजी सिनेमा… ‘लाल कॉटेज’ का लाल ऐसे बन गया हिंदुत्व का सबसे बड़ा नायक

NTN Staff
Last updated: November 9, 2023 12:13 pm
NTN Staff
2 years ago
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Contents
  • कराची में हुआ था लालकृष्ण आडवाणी का जन्म
  • फिल्मों से लालकृष्ण आडवणी को था विशेष प्यार
  • RSS का लालकृष्ण आडवणी के जीवन पर विशेष प्रभाव
  • लालकृष्ण आडवाणी, वीर सावरकर और एक सिख दोस्त

भारत के पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी बुधवार (8 नवंबर, 2023) को 96 वर्ष के हो गए। मध्य प्रदेश में चुनावी रैलियों में व्यस्त रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शाम को उन्हें जन्मदिवस की बधाई देने के लिए नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर पहुँचे। लालकृष्ण आडवाणी ही वो नेता हैं, जिन्होंने रथयात्रा कर के राम मंदिर के मुद्दे को हवा दी थी और इसके 2 वर्ष बाद बाबरी ढाँचे को ध्वस्त कर दिया गया था। उन्हें राम मंदिर आंदोलन का नायक कहें तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी।

Went to Advani Ji’s residence and wished him on the occasion of his birthday. pic.twitter.com/TfvGjSA1uL

— Narendra Modi (@narendramodi) November 8, 2023

कराची में हुआ था लालकृष्ण आडवाणी का जन्म

लालकृष्ण आडवाणी के बारे में बता दें कि उनका जन्म 8 नवंबर, 1927 को सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) के कराची शहर में हुआ था। उनका परिवार में उनके अलावा सिर्फ उनके माता-पिता और बहन ही थे। उनके जन्म के तुरंत बाद उनके परिवार ने जमशेद क्वार्टर्स (पारसी कॉलोनी) मोहल्ले में ‘लाल कॉटेज’ नाम का एकमंजिला बँगला बनवाया था। उसी मोहल्ले में कई समृद्ध पारसी समाज के लोग रहते थे। सिंधी हिन्दुओं की आमिल शाखा से उनका परिवार ताल्लुक रखता था।

आमिल समाज के बारे में बता दें कि ये लोग लोहानो वंश के 2 मुख्य भागों में से जुड़े थे जो वैश्य समुदाय से आते थे। मुस्लिम बादशाह भी अपने प्रशासकीय तंत्र में इनकी सहायता लेते थे। ये लोग नानकपंथी होते थे और सिख धर्म से इनकी नजदीकी थी। आगे चल कर सिंध में सरकारी नौकरियों में भी इनका दबदबा रहा। लालकृष्ण के दादा धरमदास खूबचंद आडवाणी संस्कृत के विद्वान थे और एक सरकारी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक भी। उनके पिता किशिनचंद एक व्यापारी थे।

लालकृष्ण आडवाणी का पालन-पोषण संयुक्त परिवार वाले माहौल में हुआ और उन्हें उनके दादा और नानी का भरपूर प्यार मिला। उनके जन्म के समय सिंध अंग्रेजों के बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था। उनके घर के मुख्य देता गुरु ग्रन्थ साहिब ही हुआ करते थे। ‘गुरु मंदिर’ नामक स्थानीय गुरुद्वारा में हिन्दू और सिख अपने-अपने त्योहार पूरे उल्लास के साथ मनाया करते थे। उनके जन्मदिन पर कभी केक नहीं काटा जाता था, बल्कि गुरु ग्रन्थ साहिब का पाठ हुआ करता था।

फिल्मों से लालकृष्ण आडवणी को था विशेष प्यार

आपको ये जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि लालकृष्ण आडवाणी बचपन में और युवावस्था में अंग्रेजी फ़िल्में देखा करते थे और खूब अंग्रेजी किताबें पढ़ते थे, ऐसे में बाद में यही लालकृष्ण आडवाणी हिंदुत्व के सबसे बड़े नायक के रूप में उभरे। उनकी शिक्षा-दीक्षा ‘सेंट पैट्रिक्स हाईस्कूल फॉर बॉयज’ में हुई थी। एक ऐसे स्कूल में, जिसकी स्थापना सन् 1845 में आयरलैंड से आए कैथोलिक मिशनरियों ने की थी। वहाँ एक चर्च भी था। पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे परवेज मुशर्रफ भी उसी स्कूल से पढ़े थे।

1936-42 तक की अवधि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में इसी स्कूल में गुजरी। सिनेमा और अंग्रेजी पुस्तकों से लालकृष्ण आडवाणी का लगाव उनके शुरुआती जीवन का एक विशेष हिस्सा है, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ में भी किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो अपने 4 मामाओं में सबसे छोटे सुंदर मामा के साथ अक्सर फ़िल्में देखने निकल जाते थे। उन्होंने ‘फेंकेंस्टाइन’ नामक एक डरावनी फिल्म का जिक्र किया है, जो उन्होंने उस जमाने में देखी थी।

ये 1931 की एक हॉरर फिल्म थी, जिसे पेबी वेबलिंग के एक नाटक के आधार पर बनाई गई थी। ये नाटक मैरी शेली की 1818 में आए उपन्यास पर आधारित थी। इसी के नाम पर फिल्म का नाम भी रखा गया। ‘यूनिवर्सल स्टूइडियोज’ ने इस फिल्म का निर्माण किया, जिसके के रीमेक बन चुके हैं। हालाँकि, लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में एक ऐसा समय भी आया जब उन्होंने 15 वर्षों तक 1942-56 के दौरान कोई फिल्म नहीं देखी। फिर वो जब मुंबई अपने सुंदर मामा के यहाँ गए तो उन्होंने ‘हाउस ऑफ वेक्स’ नामक फिल्म देखी।

ये एक थ्रीडी फिल्म थी। ये भी एक मिस्ट्री हॉरर फिल्म थी। उस समय 3D बड़ी बात हुआ करती थी, ऐसे में फिल्म को लेकर खासी चर्चा थी। ऊपर से ये रंगीन फिल्म भी थी। जब 1942 में देश में अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू हुआ, लालकृष्ण आडवाणी ने उसी साल सिंध वाले हैदराबाद स्थित दयाराम गिदूमल कॉलेज में एडमिशन लिया। उसी दौरान विदेशी साहित्य में उनकी रुचि जगी। कॉलेज की लाइब्रेरी में वो पुस्तकें पढ़ने में समय व्यतीत करने लगे।

उन्होंने साइंस फिक्शन लिखने वाले फ्रेंच लेखक जूल्स वर्न के सारे उपन्यास पढ़ डाले – ‘जर्नी टू द सेंटर ऑफ द अर्थ’, ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ इत्यादि। यूरोप के साहित्य में जूल्स वर्न का विशेष स्थान है, जो एडवेंचर से भरे उपन्यास लिखा करते थे और तकनीक का इस्तेमाल खूब करते थे। उनके साहित्य को विलियम सेक्सपियर से भी ज़्यादा बार अनुवादित किया गया है। 2010 के दशक में वो सबसे ज़्यादा अनुवादित किए जाने वाले फ्रेंच लेखक थे।

केवल उन्हें ही नहीं, बल्कि कॉलेज की लाइब्रेरी में लालकृष्ण आडवाणी ने चार्ल्स डिकेंस का ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज’ और एलेक्जेंडर ड्यूमा का ‘द थ्री मस्केटियर्स’ नामक उपन्यास भी पढ़ी थी। इसमें पहले वाला उपन्यास एक फ्रेंच डॉक्टर की कहानी है, जो फ्रांस में हुई क्रांति से पहले के लंदन और पेरिस में सेट है। फ़्रांस के जेल में कैद उस डॉक्टर और इंग्लैंड में उसकी बेटी से उसके मिलने की ये कहानी है, जिसे उसने कभी नहीं देखा होता है।’

वहीं दूसरा वाला उपन्यास एक एडवेंचर वाला है, जिसमें 17वीं शताब्दी के एक युवक की कहानी है। सोचिए, लालकृष्ण आडवाणी उस समय फ्रेंच लेखकों के कितने दीवाने हो उठे थे। ये उस ज़माने की बात है जब भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था। लालकृष्ण अडवाणी तब क्रिकेट के भी दीवाने थे और रेडियो पर स्थानीय भाषाओं में कमेंट्री सुना करते थे। लेकिन, उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया था जब 14 वर्ष की आयु में उन्होंने RSS (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की सदस्यता ली।

RSS का लालकृष्ण आडवणी के जीवन पर विशेष प्रभाव

अपने एक दोस्त के माध्यम से वो शाखा में पहुँचे थे। वहीं उनकी जान-पहचान पूर्णकालिक प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी से हुई जो उनके मार्गदर्शन भी बने। दीनदयाल उपाध्याय के अलावा उनका ही सबसे ज़्यादा प्रभाव लालकृष्ण आडवाणी पर रहा। स्कूली ज्ञान और घर के लाड़-दुलार में धनी रहे आडवाणी को देश-दुनिया की गतिविधियों के बारे में संघ की शाखा से ही पता चलता था। श्यामदास की बौद्धिक चर्चा में उन्हें आक्रांताओं से देश को आज़ाद कराने की लड़ाई में कूदने की प्रेरणा मिली।

उसी दौरान उन्हें द्विराष्ट्र वाले सिद्धांत के बारे में भी पता चला, जिसके तहत मुस्लिम नेता अपने लिए अलग इस्लामी मुल्क माँग रहे थे। विभाजन के बारे में सोच कर ही वो हैरान हो उठते थे। इसी दौरान उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह के बारे में पुस्तकें पढ़ीं। राजस्थान यात्रा के दौरान उन्होंने जेम्स टॉड की ‘एन्नेल्स एन्ड एंटीक्विटिज ऑफ राजस्थान’ नामक पुस्तक भी पढ़ी। इन्हीं सब के कारण उनके भीतर बदलाव आए और वो राष्ट्रवाद की तरफ झुकते चले गए।

लालकृष्ण आडवाणी की प्रतिभा के बारे में भी जान कर आपको सुखद आश्चर्य होगा। मात्र 17 वर्ष की उम्र में एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपनी पहली नौकरी की, तब उनके कई छात्र उनकी ही उम्र के थे। यहाँ एक और पुस्तक का जिक्र करना पड़ेगा, जिसने लालकृष्ण आडवाणी के जीवन पर बड़ा प्रभाव डाला, जो है – डेल कार्नेगी की ‘How to Win Friends & Influence People’, यानी दोस्त कैसे बनाएँ और लोगों को प्रभावित कैसे करें।

लालकृष्ण आडवाणी, वीर सावरकर और एक सिख दोस्त

इसी दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने राजपाल पुरी की सलाह के बाद वीर विनायक दामोदर सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक पढ़ी। इस पुस्तक को खरीदने के लिए उन्होंने अपनी जमापूंजी से 28 रुपए खर्च किए थे। इसी से उन्हें प्रेरणा मिली कि वो अपना जीवन राष्ट्रकार्य को समर्पित करें। नवंबर 1947 में ऐसा समय भी आया जब आडवणी सावरकर से उनके बम्बई स्थित आवास पर मिले और विभाजन को लेकर दोनों के बीच चर्चा हुई।

इसी दौरान उन्हें अपने एक सिख दोस्त की याद आई। कराची का उक्त सिख उनके घर के पास ही रहता था, RSS का समर्पित स्वयंसेवक भी था। विभाजन के पूर्व जब दंगे शुरू हो गए थे तब उसके परिवार को भी प्रताड़ित किया गया और उन्हें वहाँ से पलायन करना पड़ा। जान बचाने के लिए उसे अपने केस कटवाने पड़े और बाल मुँडवाने पड़े। इससे उसे इतना सदमा पहुँचा कि वो कई वर्षों तक मानसिक विक्षिप्त रहा। कराची में अपने अंतिम दिनों में लालकृष्ण आडवणी स्वामी रंगनाथानन्द द्वारा गीता व्याख्या सुनते थे, जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

ये थे लालकृष्ण आडवाणी के बचपन और शुरुआती युवावस्था के दिन। आज से 33 वर्ष पहले यानी 1990 में आडवाणी ने हिन्दुओं को जोड़ने और राम मंदिर निर्माण की माँग के लिए गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए रथ यात्रा निकाली। यह 25 सितम्बर को सोमनाथ से निकली थी और इसको अलग-अलग प्रदेशों से होते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुँचना था। इस यात्रा के सारथी वही नरेंद्र मोदी थे, जो आज देश के प्रधानमंत्री हैं। उस समय वे गुजरात भाजपा के संगठन महामंत्री हुआ करते थे। असल में, राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का अवतरण इसी रथ यात्रा के जरिए हुआ था।



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