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Home » वीर सावरकर की शपथ, विदेशी वस्तुओं की होली और गाँधी जी का विरोध News To Nation

भारत की बात

वीर सावरकर की शपथ, विदेशी वस्तुओं की होली और गाँधी जी का विरोध News To Nation

NTN Staff
3 years ago
12 Min Read
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साल 1904 का था, जब सावरकर साहब अलग-अलग केंद्रों पर स्थापित की गई गुप्त सभाओं से संपर्क करते हैं। उनको दिख जाता है कि सुदृढ़ नेतृत्व के बिना गुप्त सभाओं के सभी सदस्य शिथिल हो चुके हैं। आगे आने वाले समय के लिए वो स्वयं इन सभी को संगठित करने का बीड़ा उठा लेते हैं। इस दृष्टिकोण को सामने रखते हुए सावरकर स्वयं एक गुप्त सभा का आयोजन करते हैं। सभी केन्द्रों से कहा जाता है कि वो अपने-अपने प्रतिनिधियों को भविष्य की रणनीतियों और उनके संविधान पर चर्चा हेतु भेजें।

सावरकर की एक पुकार पर दो सौ लोगों का समूह इकठ्ठा हो जाता है। नि:स्वार्थ सेवा सभी को दिख जाती है। हमारी आँखें हमारे हृदय का दर्पण होती हैं। लोगों को सावरकर की आँखों में देश के लिए जूनून दिखता था। उनकी बातों में देश के लिए मर-मिटना सुनाई देता था। सावरकर उस रोज़, नासिक में वी. एम. भट्ट के भागवत बाड़ा वाले घर में हुई सभा में एक अविस्मरणीय भाषण देते हैं। सावरकर अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के गौरवशाली कारण के लिए शिवाजी, बाज़ीराव, माज़िनी और कोसुथ जैसे महान व्यक्तित्वों के दिखाए रास्ते पर चलने की साहसी घोषणा कर डालते हैं।

इसी सभा में सावरकर और साथियों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के युद्ध हेतु संगठन की भविष्य की नीति तैयार की जाती है। वे सभी साथियों को इस बात के लिए तैयार करते हैं कि अब इस आंदोलन को महाराष्ट्र से बाहर ले जाने का समय आ गया है। अलग-अलग प्रान्तों में फैले स्कूल-कॉलेजों के नवयुवकों तक विद्रोह के स्वर पहुँचाने की रणनीति तैयार करने के लिए संगठन की नींव रख दी जाती है। इस संगठन को नाम दिया जाता है-अभिनव भारत।

उसी रात सावरकर और सभी साथी शिवाजी के चित्र के सामने खड़े होकर कसम खाते हैं। एक ऐसी कसम, जिसके लिए हज़ारों लोगों ने अपनी और अपने परिवार की बलि चढ़ा दी। एक ऐसी कसम जिसने सावरकर को हमेशा के लिए अमर कर डाला। सभी साथी छत्रपति शिवाजी महाराज के चित्र के सामने खड़े होते हैं और एक स्वर में कहते हैं- “वन्दे मातरम्!!” आगे सावरकर और उनके साथी एक स्वर में प्रण लेते हैं:

“आज मैं ईश्वर के नाम पर, भारत माता के नाम पर और उन सभी बलिदानियों के नाम पर जिन्होंने भारत माता के लिए अपना खून बहाया है शपथ लेता हूँ। मैं शपथ लेता हूँ उस धरती के नाम पर, जिसमें मैंने जन्म लिया और जिसमें मेरे महान पूर्वजों की पवित्र राख मिली है। वह पवित्र धरती जो हमारे नन्हे बच्चों का झूला है। मैं उन अद्भुत माताओं के नाम पर शपथ लेता हूँ जिनके मासूम बच्चों को अत्याचारी अंग्रेज़ों ने ग़ुलाम बना कर प्रताड़ित किया है और मार दिया है।”

वो आगे कहते हैं, “मैं इस बात से अब पूरी तरह से सहमत हूँ कि पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता या स्वराज्य के बिना मेरा देश कभी भी विश्व में उस विराट रूप को प्राप्त नहीं कर सकता जिस महानता का वो हक़दार है। मुझे यह भी पूर्णरूप से विश्वास है कि विदेशी शासन से मुक्ति और स्वराज्य हेतु रक्तरंजित और और अथक युद्ध के अलावा कोई उपाय नहीं बचा है। मैं पूरी ईमानदारी से शपथ लेता हूँ कि मैं इस क्षण से अपना पूर्ण जीवन और शक्ति भारत माता की स्वतंत्रता के लिए लड़ने और स्वराज के कमल मुकुट को अपनी भारत माता के सिर पर सजाने में लगा दूँगा।”

उन्होंने कहा, “इस पावन और एकमात्र उद्देश्य के लिए आज मैं अभिनव भारत, हिंदुस्तान के क्रांतिकारी संगठन में शामिल होता हूँ। मैं शपथ लेता हूँ कि मैं इस पवित्र उद्देश्य के प्रति हमेशा सच्चा और वफ़ादार रहूँगा और मैं इस संगठन के आदेशों का सदैव पालन करूँगा।” अगर मैं इस संपूर्ण शपथ या इसमें कही गई किसी भी बात के विरुद्ध जाता हूँ, तो मेरा सर्वनाश हो!! ‘अभिनव भारत’ इटली के क्रांतिकरी माज़िनी के यंग इटली’ और रूस के क्रांतिकारी संगठनों का मिलाजुला रूप था।

थॉमस फ्रॉस्ट की चर्चित किताब ‘सीक्रेट सोसाइटी ऑफ यूरोपियन रिवोल्यूशन’ और रूस के क्रांतिकारी आंदोलन ने अभिनव भारत के सदस्यों पर अपनी छाप छोड़नी शुरू कर दी थी। इन्हीं दिनों भारत में खबर आती है कि लंदन के निवासी पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा यूरोप में अध्ययन करने के इच्छुक भारतीय छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की पेशकश कर रहे हैं। काफ़ी सोच-विचार के बाद सावरकर इस छात्रवृत्ति के बारे में आवेदन कर देते हैं।

असल में उनके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। तिलक साहब और शिवरामपंत परांजपे की सिफ़ारिशों के साथ जब सावरकर छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करते हैं तो पंडित श्यामजी ने उन्हें छात्रवृत्ति देने पर सहमति व्यक्त कर देते हैं। 1905 में ब्रिटिश शासन अपनी पहली बड़ी चाल चल देता है। बंगाल का विभाजन कर दिया जाता है और मुस्लिम पूर्वी क्षेत्रों को हिंदू पश्चिमी क्षेत्रों से अलग कर दिया जाता है। 19 जुलाई, 1905 को भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन की विभाजन की घोषणा के बाद 16 अक्टूबर, 1905 को इसे लागू कर दिया जाता है।

यह वह समय था जब सावरकर की पूना की राजनीतिक और सामाजिक सभाओं में एक महत्वपूर्ण छवि बन चुकी थी। सावरकर और उनका समूह विभाजन की योजना का कड़ा विरोध करते हैं तो वहीं तिलक बंगाल के विभाजन को अखिल भारतीय मुद्दा बना डालते हैं। सावरकर स्वदेशी आंदोलन के समर्थक तो पहले ही से थे, लेकिन अब आगे बढ़ते हुए सावरकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संकल्प ले डालते हैं। 1 अक्टूबर, 1905 को एक बैठक में छात्रों का प्रतिनिधित्व करते हुए सावरकर पूर्णरूप से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा कर देते हैं।

सावरकर बड़े ही जोशीले अंदाज़ में छात्रों को उनके पहने हुए विदेशी कपड़ों को उतार फेंकने का आवाहन करते हैं। साथ ही वो छात्रों को इन विदेशी कपड़ों और वस्तुओं के साथ इन वस्तुओं  के प्रति उनके प्रेम और लालसा को भी जला डालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। सावरकर इतने पर ही नहीं रुकते है, वो सभी छात्रों को स्वदेशी प्रतिज्ञा लेने की भी आज्ञा देते हैं। एन. सी. केलकर इस सभा के अध्यक्ष और एस. एम. परांजपे सावरकर के इस विचार का समर्थन करते हैं।

लेकिन, बैठक समाप्त होने के बाद केलकर कुछ और सुझाव देते हैं। केलकर कहते हैं कि कपड़े जलाने के बजाय, एकत्र किए गये कपड़ों को गरीबों में वितरित किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि कपड़ों को जलाना अनावश्यक है और इसमें हम सभी का आर्थिक नुकसान है।

सावरकर अपनी असहमति जताते हैं और कहते हैं, “केलकर साहब, आप शायद समझ नहीं रहे हैं। आज हम विदेशी वस्तु या कपड़ा जलाने की बात नहीं कर रहे हैं। हम इन विदेशी वस्तुओं  के प्रति जो मोह है, लगाव है, उसको जलाने की बात कर रहे हैं। विदेशियों और विदेशी वस्तुओं के प्रति जो सभी का लगाव है, वह हमारे राष्ट्र के साथ विश्वासघात है। हम आज उसी लगाव को, विश्वासघात को जलाने की बात कर रहे हैं।” केलकर शांत हो जाते हैं।

यह विचार अपने आप में ही इतना चरमपंथी और उत्तेजक था कि गरम दल के सर्वेसर्वा लोकमान्य तिलक भी इस आंदोलन की व्यावहारिकता के रूप पर सवाल उठा देते हैं। ज़िद्दी सावरकर इसे अपने लिए एक चुनौती मान लेते हैं और पूना के नागरिकों में आवश्यक उत्साह पैदा करने के लिए कुछ बैठकों की योजना तैयार करते हैं। आख़िरकार  तिलक साहब भी सावरकर की बात मान जाते हैं लेकिन उनकी एक शर्त थी। तिलक साहब कहते हैं कि कपड़ों और सामान का एक बड़ा सा ढेर लग जाना चाहिए।

ऐसा न हो कि हम इस मामले को इतना तूल दे रहे हैं लेकिन जब विदेशी वस्तुओं को जलाने की बात आये तो सामान ही इकट्ठा न हो। सावरकर चुनौती स्वीकार कर लेते हैं। पूरे शहर में वो अपने भाषणों से जोश और जूनून भर देते हैं। 7 अक्टूबर, 1905 को विदेशी कपड़े और अन्य बहिष्कृत की गई वस्तुओं का एक विशाल ढेर गाड़ियों पर लगाया जाता है। एक जुलूस के रूप में सावरकर की अगुवाई में यह हुजूम बाज़ार की ओर निकल पड़ता है और लकड़ी के पुल के सामने स्थित मैदान पर जाकर ठहर जाता है।

उस रोज़ सावरकर द्वारा भारत के इस पहले विदेशी वस्त्र और वस्तुओं के होली दहन ने देश को चौंका दिया था। देश के राजनीतिक संसार में एक हलचल मचा दी थी। इस अनहोनी घटना ने भारतीय प्रेस में भी विवाद खड़ा कर दिया था। जब इस आग की लपटें दूर बंगाल तक पहुँची और वहाँ की पत्रिकाओं ने भी इस मामले को तूल देना शुरू किया, तब जाकर कॉलेज प्रशासन की नींद टूटी। फर्ग्यूसन कॉलेज के तत्कालीन प्रधानाध्यापक आर. पी. परांजपे ने सावरकर पर दस रुपए का जुर्माना लगा कर उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया।

लेकिन, दीवाने सावरकर के लिए यह इनाम से बढ़कर कुछ नहीं था। उनकी छाती पर अब विद्रोह के दो तमगे टंगे हुए थे। वह भारत में विदेशी वस्तुओं का दहन करने वाले पहले भारतीय नेता और राजनीतिक कारणों से सरकारी सहायता प्राप्त संस्थान से विस्थापित हुए पहले भारतीय छात्र बन चुके थे।”

यहाँ एक घटना का ज़िक्र करना उचित रहेगा। इस दौरान दक्षिण अफ्रीका में बैठे गाँधी जी ने भी विदेशी वस्तुओं के दहन की आलोचना कर डाली थी। जबकि सत्रह नवंबर, 1921 को गाँधी जी ने ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ के नेता के रूप में बॉम्बे में विदेशी कपड़ों की स्वयं होली जलाई थी। गाँधी जी की यह राय अपने भविष्य के गुरु गोखले से अलग नहीं थी। गोखले 1905 में बनारस कॉन्ग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में कह ही चुके थे:

“हमें यह याद रखना चाहिए कि ‘बायकाट’ शब्द कहाँ से आया है। इस शब्द के मूल उद्भव में कुछ असामाजिक और अवांछनीय घटनाएँ सम्मिलित हैं। इस कारण यह शब्द ‘बायकाट’ सर्वप्रथम सामने वाले को चोट पहुँचाने की इच्छा व्यक्त करता है। किन्तु सरकार यह जान ले कि इंग्लैंड के प्रति हमारी ऐसी किसी भी इच्छा का होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।”

(भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएँ आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा गई हैं।)

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